Tuesday, February 16, 2016

अगर इंसान की प्रजाति ख़त्म हो जाए तो..

आपने वो फ़िल्में तो देखी होंगी, जिसमें दुनिया के ख़त्म हो जाने का ख़ौफ़ दिखाया जाता है. जैसे, 2012 या आर्मागेडॉन.
इंसानियत की तबाही का मंज़र बयां करती ये फ़िल्में अक्सर एक बड़ा सवाल छोड़ जाती हैं कि अगर हक़ीक़त में कहीं ऐसा हुआ तो इंसान की प्रजाति कैसे बचेगी. मानवता को फिर से ज़िंदा कैसे किया जाएगा?

इस सवाल के जवाब में आप कहेंगे कि सिर्फ़ दो लोग मिलकर धरती पर इंसानियत का परचम फिर से लहरा सकते हैं.
नई नस्लें पैदा करने के लिए ज़रूरत होगी सिर्फ़ एक मर्द और एक औरत की. दोनों के बीच संबंध से जो संतानें पैदा होंगी, वो आपसी रिश्ते से मानवता की नई नस्लों को जन्म देंगी.
ऐसे ही नुस्खे से ऑस्ट्रेलिया के पास एक द्वीप पर झींगे की क़रीब क़रीब ख़त्म हो चुकी नस्ल को ज़िंदा कर दिखाया गया है.
इस नस्ल के सिर्फ़ दो केकड़े इस टापू पर बचे थे. ऑस्ट्रेलिया के पास लॉर्ड हो द्वीप पर इनकी रिहाइश थी. मगर 1918 में काले चूहों ने इनके ठिकाने पर धावा बोला और इन्हें चट कर गए.
ऐसा मान लिया गया था कि इन केकड़ों की नस्ल का सफाया हो चुका है. मगर 2003 में दो खोजी वैज्ञानिकों ने एक चट्टान पर मुश्किल चढ़ाई करके इन दोनों को एक गुफा से निकाला.
इन्हें लाकर मेलबर्न के चिड़ियाघर में रखा गया. झींगों के इन 'आदम और हव्वा' से आज की तारीख़ में नौ हज़ार लोगों का परिवार जमा हो गया है. कहां तो इनके विलुप्त होने का ख़तरा था और कहां ये बड़ी तेज़ी से फल-फूल रहे हैं.
मगर ये बात है केकड़ों की. इंसान के ख़ात्मे की सूरत में ये फॉर्मूला काम आएगा या नहीं, वैज्ञानिकों ने ये पता लगाने की कोशिश की तो कई चुनौतियां सामने आई हैं.
कल्पना कीजिए कि आज से सौ साल बाद ऐसी स्थिति आए कि इंसानों के ख़ात्मे की सूरत पैदा हो जाए. जैसे वैज्ञानिक स्टीफ़न हॉकिंग ने भविष्यवाणी की है कि सौ साल बाद इंसान के बनाए हुए रोबोट इतने ताक़तवर हो जाएंगे कि मानवता का ही ख़ात्मा कर देंगे.
तो धरती पर इंसानियत को फिर से ज़िंदा करने के लिए एक मर्द और एक औरत की ज़रूरत होगी. इनसे फिर से मानवता को खड़ा किया जा सकेगा.
कहने को तो ये सिर्फ़ काल्पनिक सवाल है. मगर नासा जैसे वैज्ञानिक संस्थान और दुनिया के कई अन्य बड़े संस्थान इस बारे में गंभीरता से सोच रहे हैं. असल में उनकी फ़िक्र, इंसानों की दूसरी दुनिया बसाने को लेकर ज़्यादा है.
लेकिन, अगर धरती पर क़यामत आ जाए तो?
हालांकि, क़ुदरती तौर तरीक़ों के हिसाब से तो सिर्फ़ दो इंसान, यानी एक पुरुष और एक औरत इंसानियत को ज़िंदा कर देंगे.
मगर सोचिए, इनकी अगली पीढ़ी में जो बच्चे होंगे, वो भाई-बहन होंगे, जिनके आपसी संबंध से ही अगली पीढ़ी हो सकेगी. ऐसे में इनके बच्चों में एक ही परिवार के गुण होंगे, कमियां होंगी.
मशहूर मनोवैज्ञानिक, सिग्मंड फ्रॉयड कहते थे कि समाज के लिए सबसे ख़राब जो दो बातें हैं उनमें से एक है अपने मां-बाप का क़त्ल और दूसरा, परिवार के लोगों के बीच जिस्मानी ताल्लुक़ात.
समाज के लिए तो ये ख़राब है ही, वैज्ञानिक नज़रिए से भी है. जैसे अगर एक ही परिवार के लोगों के बीच संबंध होंगे, तो जो आनुवांशिक बीमारियां हैं, उनका असर पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ता जाएगा.
यूरोप के देश चेकोस्लोवाकिया में 1933 से 1970 के बीच पैदा हुए बच्चों के बीच सर्वे हुआ था. पता चला कि जिनके मां-बाप ऐसे थे जो किसी न किसी पुराने रिश्ते से जुड़े थे, उन बच्चों में से चालीस फ़ीसदी किसी न किसी बीमारी के शिकार थे. आख़िर में इनमें से चौदह फ़ीसदी बेवक़्त चल बसे.
असल में हम सबके पास अपने जींस की दो कॉपी होती है. इनमें से एक मां से मिलती है तो दूसरी पिता से. लेकिन इनमें से कई जीन ऐसे होते हैं, जो तब तक छुपे रहते हैं जब तक उनका परफेक्ट मैच नहीं मिलता.
ऐसा तभी होता है, जब आपके मां-बाप पहले के किसी न किसी रिश्ते से जुड़े हों. ये ख़ुफ़िया जीन, पीढ़ी दर पीढ़ी, छुपते-छुपाते आने वाली नस्लों में ट्रांसफर होती हैं, जैसे ही इनका परफेक्ट मैच मिलता है, ये जाग उठते हैं, हमें बीमार करते हैं.
मसलन वर्णांधता या कलर ब्लाइंडनेस की बीमारी को ही लें. आज की तारीख़ में हर तैंतीस हज़ार में से एक इंसान इस बीमारी का शिकार है. ये संख्या बेहद कम है. लेकिन पश्चिमी प्रशांत महासागर में स्थित एक छोटे से द्वीप पिंगलैप का हाल इसके ठीक उलट है.
यहां अठारहवीं सदी में भयानक समुद्री तूफ़ान आया और द्वीप में रहने वाले बीस लोगों के सिवा बाक़ी सभी मारे गए. इन बीस लोगों में से एक को कलर ब्लाइंडनेस की बीमारी थी. पीढ़ी दर पीढ़ी, इनके आपसी संबंधों का नतीजा ये हुआ कि आज इस द्वीप पर रहने वाला हर दसवां आदमी इस बीमारी का शिकार है.
वैज्ञानिक इसी बात को लेकर ज़्यादा फ़िक्रमंद हैं. क्या हुआ अगर, तबाही हुई और जो दो लोग बच रहे, उनमें से किसी एक में ऐसे ही बीमारी के जीन हुए. होगा ये कि आगे चलकर कई लोग इस बीमारी के शिकार होंगे. ऐसे में मानवता पर आया ख़तरा बीमारी के तौर पर सिर पर सवार होगा.
हालांकि आदम और हव्वा के ऐसे आख़िरी जोड़े की कई संतानें सेहतमंद भी होंगी. लेकिन, बीमारी के छुपे हुए गुणसूत्र वाले लोगों के बीच अगर पीढ़ी दर पीढ़ी रिश्तेदारियां होती रहीं, तो बीमारियां भी ट्रांसफर होती रहेंगी.
स्पेन का हैब्सबर्ग राजपरिवार इसकी सबसे अच्छी मिसाल है. इस परिवार का आख़िरी राजा, सत्रहवीं सदी में हुआ चार्ल्स द्वितीय. वो इतनी तरह की बीमारियों का शिकार था कि गिनना मुश्किल.
सिर्फ़ 39 साल की उम्र में जब वो मरा तो उसका राज-पाट संभालने के लिए दूर दूर तक कोई रिश्तेदार नहीं था. असल में चार्ल्स द्वितीय से पहले के दो सौ सालों तक, यूरोप के तमाम राजपरिवार एक दूसरे के यहां अपने बेटे-बेटियों का ब्याह करते रहे थे.
नतीजा ये कि तमाम बीमारियों के जींस छुपते-छुपाते इकट्ठे होते रहे. नतीजा चार्ल्स के तौर पर सामने आया, यानी बीमारियों का घर.
उसको विरासत में इतने बीमार पुश्तैनी जींस मिले थे कि गिनती करना मुश्किल. इससे बेहतर तो शायद तब भी होता जब उसके मां-बाप आपस में भाई बहन होते.
कहने का मतलब ये कि अगर, किसी प्रजाति की बहुत कम तादाद बचती है, तो उनका जीन पूल यानी गुणसूत्रों का बैंक, कम होता है. इसमें भी अगर कुछ बीमार जींस हुए, तो अगली पीढ़ियों के विस्तार की उम्मीद कम होती जाती है. क्योंकि इनकी आने वाली नस्लों के पास जो जीन पूल होता है, उसमें बीमारी वाले जींस की संख्या बढ़ जाती है.
न्यूज़ीलैंड में पाए जाने वाले काकापो नाम के तोते इसका बेहतरीन उदाहरण हैं. बहुतेरी कोशिशों के बावजूद, इनकी संख्या नहीं बढ़ पा रही है और आगे चलकर इस प्रजाति के ख़ात्मे का ख़तरा है. वजह यही है कि इनकी संख्या बेहद कम है. जीन पूल छोटा है. ऐसे में अगली पीढ़ी में बीमारियां ट्रांसफर होती जाती हैं.
वैसे क़ुदरती तौर पर हर जीव कोशिश ये करता है कि उसके जीवनसाथी का जीन पूल अलग हो, ताकि आने वाली पीढ़ियों में आनुवांशिक बीमारियां जाने का ख़तरा कम हो.
लेकिन, हम जिस तबाही की कल्पना कर रहे हैं, उसमे अगर सिर्फ़ एक मर्द और औरत बच रहते हैं. तो उनके पास विकल्प ही क्या होंगे?
वैज्ञानिक ये भी कहते है कि पीढ़ी दर पीढ़ी, तमाम जीव, क़ुदरती चुनौतियों के लिए ख़ुद को तैयार करते हैं, उसके हिसाब से नए ढब सीखते हैं, नए गुण जमा करते हैं. ऐसे में आनुवांशिक बीमारियों का ख़तरा कम होता जाता है.
हालांकि ये सब बातें, अभी हवा में ही ज़्यादा हैं. कुछ वैज्ञानिक ये भी कहते हैं कि ये बहस ही बेवजह की है. आख़िर लाखों साल पहले इंसान का जन्म हुआ था तो हज़ार की भी तादाद नहीं थी. आज तमाम सबूत ये कहते हैं कि क़रीब दस लाख साल पहले, सिर्फ़ एक हज़ार इंसान धरती पर थे. फिर इनकी संख्या में इज़ाफ़ा हुआ.
लेकिन क़रीब एक लाख से पचास हज़ार साल पहले,जब इंसान अफ्रीका से दुनिया के दूसरे देशों की तरफ़ गए तो भी हालात उनके हमवार नहीं थे. मगर आज इंसानों की इतनी बड़ी तादाद धरती पर है. उसने इतनी तरक़्क़ी कर ली है.
ऐसे में अगर प्रलय आया और महाविनाश के बाद सिर्फ़ आदम और हव्वा बच रहे, तो भी इंसानियत फिर से ज़िंदा हो उठेगी.
इसका सबसे अच्छी मिसाल है उत्तरी अमेरिका का हटेराइट समुदाय. इस समुदाय के लोग आपस में ही रिश्ते करते हैं. फिर भी, बीसवीं सदी की शुरुआत में इस समुदाय की जनसंख्या तेज़ी से बढ़ी, सिर्फ़ सत्रह सालों में इनकी आबादी दोगुनी हो गई.
ऐसी मिसालें हीं उम्मीद की किरण हैं.
तो महाविनाश को लेकर बेफ़िक्र रहिए. अगर प्रलय आया और उससे सिर्फ़ एक मर्द और एक औरत बचे तो भी धरती की आज की आबादी की बराबरी में सिर्फ़ 556 साल लगेंगे. मगर इसकी एक शर्त है. हर औरत कम से कम आठ बच्चे पैदा करे. ये शर्त पूरी करना ही ज़रा मुश्किल है.

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