Monday, October 19, 2015

डॉ॰ सुब्रह्मण्याम चंद्रशेखर

डॉ॰ सुब्रह्मण्याम चंद्रशेखर का जन्म 19 अक्टूबर
1910 को लाहौर (अब पाकिस्तान में) में हुआ
था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा
मद्रास में हुई। 18 वर्ष की आयु में चंद्रशेखर का
पहला शोध पत्र `इंडियन जर्नल आफ फिजिक्स'
में प्रकाशित हुआ।

मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक की
उपाधि लेने तक उनके कई शोध पत्र प्रकाशित
हो चुके थे। उनमें से एक `प्रोसीडिंग्स ऑफ द
रॉयल सोसाइटी' में प्रकाशित हुआ था, जो
इतनी कम उम्र वाले व्यक्ति के लिए गौरव की
बात।
24 वर्ष की अल्पायु में सन् 1934 में ही उन्होंने
तारे के गिरने और लुप्त होने की अपनी
वैज्ञानिक जिज्ञासा सुलझा ली थी। कुछ
ही समय बाद यानी 11 जनवरी 1935 को लंदन
की रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी की एक
बैठक में उन्होंने अपना मौलिक शोध पत्र भी
प्रस्तुत कर दिया था कि सफेद बौने तारे यानी
व्हाइट ड्वार्फ तारे एक निश्चित द्रव्यमान
यानी डेफिनेट मास प्राप्त करने के बाद अपने
भार में और वृद्धि नहीं कर सकते। अंतत वे ब्लैक
होल बन जाते हैं। उन्होंने बताया कि जिन
तारों का द्रव्यमान आज सूर्य से 1.4 गुना
होगा, वे अंतत सिकुड़ कर बहुत भारी हो जाएंगे।
ऑक्सफोर्ड में उनके गुरु सर आर्थर एडिंगटन ने
उनके इस शोध को प्रथम दृष्टि में स्वीकार नहीं
किया और उनकी खिल्ली उड़ाई। पर वे हार
मानने वाले नहीं थे। वे पुन शोध साधना में जुट
गए और आखिरकार, इस दिशा में विश्व भर में
किए जा रहे शोधों के फलस्वरूप उनकी खोज के
ठीक पचास साल बाद 1983 में उनके सिद्धांत
को मान्यता मिली। परिणामत भौतिकी के
क्षेत्र में वर्ष 1983 का नोबेल पुरस्कार उन्हें
तथा डॉ॰ विलियम फाऊलर को संयुक्त रूप से
प्रदान किया गया।
27 वर्ष की आयु में ही चंद्रशेखर की खगोल
भौतिकीविद के रूप में अच्छी धाक जम चुकी
थी। उनकी खोजों से न्यूट्रॉन तारे और ब्लैक
होल के अस्तित्व की धारणा कायम हुई जिसे
समकालीन खगोल विज्ञान की रीढ़
प्रस्थापना माना जाता है।
खगोल भौतिकी के क्षेत्र में डॉ॰ चंद्रशेखर,
चंद्रशेखर सीमा यानी चंद्रशेखर लिमिट के लिए
बहुत प्रसिद्ध हैं। चंद्रशेखर ने पूर्णत गणितीय
गणनाओं और समीकरणों के आधार पर `चंद्रशेखर
सीमा' का विवेचन किया था और सभी खगोल
वैज्ञानिकों ने पाया कि सभी श्वेत वामन
तारों का द्रव्यमान चंद्रशेखर द्वारा
निर्धारित सीमा में ही सीमित रहता है।
सन् 1935 के आरंभ में ही उन्होंने ब्लैक होल के
बनने पर भी अपने मत प्रकट किए थे, लेकिन कुछ
खगोल वैज्ञानिक उनके मत स्वीकारने को
तैयार नहीं थे।
यद्यपि अपनी खोजों के लिये डॉ॰ चंद्रशेखर को
भारत में सम्मान  बहुत मिला, पर 1930 में
अपने अध्ययन के लिये भारत छोड़ने के बाद वे
बाहर के ही होकर रह गए और लगनपूर्वक अपने
अनुसंधान कार्य में जुट गए। चंद्रशेखर ने खगोल
विज्ञान के क्षेत्र में तारों के वायुमंडल को
समझने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया और यह
भी बताया कि एक आकाश गंगा में तारों में
पदार्थ और गति का वितरण कैसे होता है।
रोटेटिंग प्लूइड मास तथा आकाश के नीलेपन पर
किया गया उनका शोध कार्य भी प्रसिद्ध है।
डॉ॰ चंद्रा विद्यार्थियों के प्रति भी
समर्पित थे। 1957 में उनके दो विद्यार्थियों
त्सुंग दाओ ली तथा चेन निंग येंग को भौतिकी
के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
अपने अंतिम साक्षात्कार में उन्होंने कहा था,
यद्यपि मैं नास्तिक हिंदू हूं पर तार्किक दृष्टि
से जब देखता हूं, तो यह पाता हूं कि मानव की
सबसे बड़ी और अद्भुत खोज ईश्वर है।
अनेक पुरस्कारों और पदकों से सम्मानित डॉ॰
चंद्रा का जीवन उपलब्धियों से भरपूर रहा। वे
लगभग 20 वर्ष तक एस्ट्रोफिजिकल जर्नल के
संपादक भी रहे। डॉ॰ चंद्रा नोबेल पुरस्कार
प्राप्त प्रथम भारतीय तथा एशियाई
वैज्ञानिक सुप्रसिद्ध सर चंद्रशेखर वेंकट रामन
के भतीजे थे। सन् 1969 में जब उन्हें भारत सरकार
की ओर से पद्म विभूषण से सम्मानित किया
गया, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती
इंदिरा गांधी ने उन्हें पुरस्कार देते हुए कहा था,
यह बड़े दुख की बात है कि हम चंद्रशेखर को अपने
देश में नहीं रख सके। पर मैं आज भी नहीं कह
सकती कि यदि वे भारत में रहते तो इतना बड़ा
काम कर पाते।
डॉ॰ चंद्रा सेवानिवृत्त होने के बाद भी जीवन-
पर्यंत अपने अनुसंधान कार्य में जुटे रहे। बीसवीं
सदी के विश्व-विख्यात वैज्ञानिक तथा
महान खगोल वैज्ञानिक डॉ॰ सुब्रह्मण्यम्
चंद्रशेखर का 22 अगस्त 1995 को 84 वर्ष की
आयु में दिल का दौरा पड़ने से शिकागो में
निधन हो गया। इस घटना से खगोल जगत ने एक
युगांतकारी खगोल वैज्ञानिक खो दिया। यूं
तो डॉ॰ चंद्रशेखर ने काफी लंबा तथा पर्याप्त
जीवन जिया पर उनकी मृत्यु से भारत को
अवश्य धक्का लगा है क्योंकि आज जब हमारे
देश में ` जायंट मीटर वेव रेडियो टेलिस्कोप ' की
स्थापना हो चुकी है, तब इस क्षेत्र में नवीनतम
खोजें करने वाला वह वैज्ञानिक चल बसा
जिसका उद्देश्य था- भारत में भी अमेरिका
जैसी संस्था `सेटी' (पृथ्वीतर नक्षत्र लोक में
बौद्धिक जीवों की खोज) का गठन। आज जब
डॉ॰ चंद्रा हमारे बीच नहीं हैं, उनकी विलक्षण
उपलब्धियों की धरोहर हमारे पास है जो
भावी पीढ़ियों के खगोल वैज्ञानिकों के
लिए प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी।

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